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Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-28 में क्या क्या हुआ Breaking News Update
श्री राम चंद्राय नम: पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं।
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥ चौपाई : अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी।
भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥ अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी।
सत्य सदा संतत सुचि जानी॥1॥ भावार्थ:-हे भवानी! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा (कठोर) तप किसी ने नहीं किया।
अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी को सदा सत्य और निरंतर पवित्र जानकर अपने हृदय में धारण कर॥ आवै पिता बोलावन जबहीं।
हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥ मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा।
जानेहु तब प्रमान बागीसा॥ भावार्थ:-जब तेरे पिता बुलाने को आवें, तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी को ठीक समझना॥ इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-27 में क्या क्या हुआ सुनत गिरा बिधि गगन बखानी।
पुलक गात गिरिजा हरषानी॥ उमा चरित सुंदर मैं गावा।
सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥ भावार्थ:-(इस प्रकार) आकाश से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते ही पार्वतीजी प्रसन्न हो गईं और (हर्ष के मारे) उनका शरीर पुलकित हो गया।
(याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी से बोले कि-) मैंने पार्वती का सुंदर चरित्र सुनाया, अब शिवजी का सुहावना चरित्र सुनो॥ जब तें सतीं जाइ तनु त्यागा।
तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥ जपहिं सदा रघुनायक नामा।
जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥ भावार्थ:-जब से सती ने जाकर शरीर त्याग किया, तब से शिवजी के मन में वैराग्य हो गया।
वे सदा श्री रघुनाथजी का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ श्री रामचन्द्रजी के गुणों की कथाएँ सुनने लगे॥ दोहा : चिदानंद सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥ भावार्थ:-चिदानन्द, सुख के धाम, मोह, मद और काम से रहित शिवजी सम्पूर्ण लोकों को आनंद देने वाले भगवान श्री हरि (श्री रामचन्द्रजी) को हृदय में धारण कर (भगवान के ध्यान में मस्त हुए) पृथ्वी पर विचरने लगे॥ चौपाई : कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना।
कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥ जदपि अकाम तदपि भगवाना।
भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥ भावार्थ:-वे कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते और कहीं श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करते थे।
यद्यपि सुजान शिवजी निष्काम हैं, तो भी वे भगवान अपने भक्त (सती) के वियोग के दुःख से दुःखी हैं॥ एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती।
नित नै होइ राम पद प्रीती॥ नेमु प्रेमु संकर कर देखा।
अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥ भावार्थ:-इस प्रकार बहुत समय बीत गया।
श्री रामचन्द्रजी के चरणों में नित नई प्रीति हो रही है।
शिवजी के (कठोर) नियम, (अनन्य) प्रेम और उनके हृदय में भक्ति की अटल टेक को (जब श्री रामचन्द्रजी ने) देखा॥ प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला।
रूप सील निधि तेज बिसाला॥ बहु प्रकार संकरहि सराहा।
तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥ भावार्थ:-तब कृतज्ञ (उपकार मानने वाले), कृपालु, रूप और शील के भण्डार, महान् तेजपुंज भगवान श्री रामचन्द्रजी प्रकट हुए।
उन्होंने बहुत तरह से शिवजी की सराहना की और कहा कि आपके बिना ऐसा (कठिन) व्रत कौन निबाह सकता है॥ बहुबिधि राम सिवहि समुझावा।
पारबती कर जन्मु सुनावा॥ अति पुनीत गिरिजा कै करनी।
बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥ भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने बहुत प्रकार से शिवजी को समझाया और पार्वतीजी का जन्म सुनाया।
कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी ने विस्तारपूर्वक पार्वतीजी की अत्यन्त पवित्र करनी का वर्णन किया॥ श्री रामजी का शिवजी से विवाह के लिए अनुरोध दोहा : अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥ भावार्थ:-(फिर उन्होंने शिवजी से कहा-) हे शिवजी! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए।
मुझे यह माँगें दीजिए कि आप जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें॥ चौपाई : कह सिव जदपि उचित अस नाहीं।
नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥ सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा।
परम धरमु यह नाथ हमारा॥ भावार्थ:-शिवजी ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती।
हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ॥ मातु पिता गुर प्रभु कै बानी।
बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥ तुम्ह सब भाँति परम हितकारी।
अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥ भावार्थ:-माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए।
फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं।
हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है॥ प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना।
भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥ कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ।
अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥ भावार्थ:-शिवजी की भक्ति, ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर प्रभु रामचन्द्रजी संतुष्ट हो गए।
प्रभु ने कहा- हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई।
अब हमने जो कहा है, उसे हृदय में रखना॥ अंतरधान भए अस भाषी।
संकर सोइ मूरति उर राखी॥ तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए।
बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥4॥ भावार्थ:-इस प्रकार कहकर श्री रामचन्द्रजी अन्तर्धान हो गए।
शिवजी ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख ली।
उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आए।
प्रभु महादेवजी ने उनसे अत्यन्त सुहावने वचन कहे-॥ शेष अगले प्रसंग में ------------------- राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सह्स्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने॥ - आरएन तिवारी।
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Posted on 03 August 2025 | Follow HeadlinesNow.com for the latest updates.
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