राजनीति आखिर कब तक 'हिन्दू' झेलते रहेंगे प्रशासनिक भेदभाव? यदि धैर्य टूटा तो...
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राजनीति आखिर कब तक 'हिन्दू' झेलते रहेंगे प्रशासनिक भेदभाव? यदि धैर्य टूटा तो...

राजनीति आखिर कब तक 'हिन्दू' झेलते रहेंगे प्रशासनिक भेदभाव? यदि धैर्य टूटा तो...
मुख्य विवरण
क्योंकि यदि नेताओं को यह बात समझ में आ गई तो समझो कि इसके खिलाफ बवाल होना तय है।
दरअसल, यह बात मैं नहीं कह रहा हूँ, बल्कि भाजपा सांसद डॉ।
पाकिस्तान प्रायोजित हिन्दू धर्म विरोधी पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत में अधिकांश लोगों के मन में अब यह सवाल कौंध रहा है कि क्या अब असली धर्मयुद्ध यानी अगला महाभारत शुरू होने वाला है, क्योंकि अपने ऊपर अनवरत हमलों, न्यायिक और प्रशासनिक भेदभाव के चलते हिंदुओं का धैर्य अब टूटने के कगार पर खड़ा है! जानकार बताते हैं कि आजादी से पहले और आजादी के बाद की सरकारों ने और उनके अधीनस्थ उच्चतम न्यायालय ने अपनी जिस हिन्दू विरोधी मानसिकता का परिचय दिया है और उनकी कथनी और करनी में जो बहुत अंतर नजर आने लगा है, वह तो धर्मयुद्ध भड़काने जैसा ही प्रतीत होता है! यक्ष प्रश्न है कि आखिर कबतक 'हिन्दू' झेलते रहेंगे न्यायिक और प्रशासनिक भेदभाव? और यदि धैर्य टूटा तो फिर क्या होगा? इसलिए जनमानस में चर्चा है कि अब ऐसी पक्षपाती संस्थाओं और उसके मूल स्रोत संवैधानिक व्यवस्थाओं/कानूनों के खिलाफ लीगल सर्जिकल स्ट्राइक करने का दबाव निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर बनाया जाए।
निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट पर आरोप लगाते हुए जो बातें कहीं हैं, उसके विश्लेषण से यह सवाल पैदा हो रहे हैं।
इसे भी पढ़ें: Pahalgam में जब लोगों का धर्म पूछकर उन्हें गोली मारी गयी तो इसे आतंकी घटना कहेंगे या जिहादी हमला? बता दें कि सांसद दुबे ने कहा था कि "इस देश में यदि कोई धर्मयुद्ध भड़काने का जिम्मेदार होगा, तो वह सुप्रीम कोर्ट और उसके न्यायाधीश ही होंगे!" तभी तो उनके इस आरोप से बड़ा विवाद खड़ा हो गया और विपक्ष ने उनकी तीखी आलोचना की।
लेकिन प्रसिद्ध वैज्ञानिक, लेखक और वक्ता आनंद रंगनाथन ने एक वीडियो बयान जारी कर सांसद दूबे का पूर्ण समर्थन किया है और रंगनाथन ने अपनी धाराप्रवाह अंग्रेज़ी में सुप्रीम कोर्ट से जो 9 सवाल पूछे हैं, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं।
कोर्ट को अविलंब इस पर अपना पक्ष देने की पहल करनी चाहिए, अन्यथा जनमानस में फैली भ्रांति उसके अस्तित्व पर भी सवाल उठा सकतीं हैं।
दरअसल, आनंद रंगनाथन पूछते हैं कि, पहला, जब मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हटाने वाला अनुच्छेद 370 समाप्त किया, तो सुप्रीम कोर्ट ने विपक्ष की याचिकाओं पर तुरंत विशेष पीठ बनाकर जल्द सुनवाई की।
लेकिन 1990 में कश्मीरी हिंदुओं पर हुए अत्याचारों- जैसे जबरन पलायन, घरों पर कब्जा, मंदिरों का विध्वंस, हत्याएं, बलात्कार, नौकरी से निकालना- पर दायर याचिकाओं को यह कहकर खारिज कर दिया कि "अब बहुत समय हो गया है, हम यह मामला नहीं खोल सकते।
" इस पर उन्होंने सवाल उठाया है कि क्या यह दोहरा मापदंड नहीं है? क्या इससे हिंदू समाज में आक्रोश पैदा नहीं होगा? क्या यह धर्मयुद्ध भड़काना नहीं है? दूसरा, सुप्रीम कोर्ट को आज वक्फ बोर्ड की चिंता है, लेकिन पिछले 30 वर्षों में वक्फ बोर्ड द्वारा अवैध तरीके से हड़पी गई संपत्तियां, समानांतर न्याय प्रणाली और कर नहीं भरना- क्या ये सब अदालत को दिखाई नहीं दिए? आज यदि वक्फ कानून के सुधार से इस्लाम खतरे में लगता है, तो क्या हिंदुओं की जमीनों पर मस्जिदें और मकबरे बनाना उचित है? वक्फ बोर्ड ने पिछले 10 वर्षों में 20 लाख हिंदू संपत्तियां कब्जा लीं–इस पर सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी धर्मयुद्ध नहीं तो और क्या है? तीसरा, हिंदू मंदिर सरकार के अधीन क्यों हैं, उनकी आय से मदरसों, हज यात्रा, वक्फ बोर्ड, इफ्तार पार्टी, कर्ज आदि पर खर्च क्यों किया जाती है? वहीं, हिंदू धार्मिक कार्यों पर रोक, उनकी याचिकाओं को लटकाना, अल्पसंख्यकों को हमेशा प्राथमिकता देना- क्या यह न्याय है? या हिंदू समाज के मन में आक्रोश उत्पन्न करने का एक तरीका है? चौथा, शिक्षा के अधिकार के तहत, हिंदू संस्थाओं को 25% सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित करनी होती हैं।
जबकि मुस्लिम और ईसाई संस्थाओं पर कोई ऐसा नियम नहीं।
इससे हजारों हिंदू स्कूल बंद हो गए और हिंदू बच्चे दूसरे धर्मों की संस्थाओं में पढ़ने लगे।
क्या यह भी धर्मांतरण को बढ़ावा नहीं है? क्या सुप्रीम कोर्ट को यह पक्षपात दिखाई नहीं देता? पांचवां, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी दोहरी नीति: हिंदुओं की बात हेट स्पीच, और दूसरों की बात फ्री स्पीच मानी जाती है।
विशेष जानकारी
नूपुर शर्मा ने सिर्फ हदीस का उल्लेख किया- उसे कोर्ट ने हेट स्पीच कहा।
लेकिन स्टालिन और अन्य नेताओं ने सनातन धर्म को "रोग" बताया- कोर्ट ने उस पर चुप्पी साध ली।
क्या यह निष्पक्ष न्याय है? छठा, सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू परंपराओं जैसे दशहरे के बली प्रथा पर रोक लगा दी, लेकिन हलाल, ईद के दौरान सामूहिक पशुहत्या- उस पर कोई सवाल नहीं।
जन्माष्टमी पर हांडी की ऊँचाई पर रोक, लेकिन मोहर्रम की हिंसा पर कोई कार्रवाई नहीं।
दिवाली के पटाखे पर्यावरण के लिए बुरे, लेकिन क्रिसमस के पटाखे नहीं।
क्या यह भेदभाव नहीं? सातवां,।
प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 को 2019 में कठोर बना दिया गया, ताकि 15 अगस्त 1947 से पहले के धार्मिक स्थलों की स्थिति में कोई बदलाव न किया जा सके।
इससे हिंदुओं की प्राचीन मंदिरों को पुनः प्राप्त करने की राह बंद हो गई।
राम मंदिर के लिए वर्षों संघर्ष करना पड़ा, बाकी स्थल अब भी विधर्मियों के कब्जे में हैं।
क्या यह ऐतिहासिक अन्याय नहीं? आठवां, शबरीमाला मामले में भी कोर्ट ने हिंदू भावनाओं को चोट पहुँचाई।
कुछ मंदिरों में पुरुषों की, कुछ में महिलाओं की प्रवेश परंपराएं हैं- लेकिन कोर्ट ने केवल हिंदुओं को निशाना बनाया।
जबकि इस्लाम में महिलाओं को मस्जिद, कुरान आदि से रोका जाता है, ईसाई धर्म में महिला पादरी नहीं बन सकती- तो उनपर कोई सवाल क्यों नहीं? नौंवा, शाहीनबाग आंदोलन और सीएए विरोध में जो दंगे हुए, उस पर भी सुप्रीम कोर्ट की भूमिका एकतरफा थी।
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Posted on 13 May 2025 | Source: Prabhasakshi | Visit HeadlinesNow.com for more stories.
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